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देवता: अग्निः ऋषि: भरद्वाजो बार्हस्पत्यः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः काण्ड:

य꣢ उ꣣ग्र꣡ इ꣢व शर्य꣣हा꣢ ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गो꣣ न꣡ वꣳस꣢꣯गः । अ꣢ग्ने꣣ पु꣡रो꣢ रु꣣रो꣡जि꣢थ ॥१७०७॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

य उग्र इव शर्यहा तिग्मशृङ्गो न वꣳसगः । अग्ने पुरो रुरोजिथ ॥१७०७॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यः꣢ । उ꣡ग्रः꣢ । इ꣣व । शर्यहा꣢ । श꣣र्य । हा꣢ । ति꣣ग्म꣡शृ꣢ङ्गः । ति꣣ग्म꣢ । शृ꣣ङ्गः । न꣡ । व꣡ꣳस꣢꣯गः । अ꣡ग्ने꣢꣯ । पु꣡रः꣢꣯ । रु꣣रो꣡जि꣢थ ॥१७०७॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1707 | (कौथोम) 8 » 2 » 18 » 3 | (रानायाणीय) 18 » 4 » 3 » 3


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अब वह परमेश्वर कैसा है, जिसकी शरण में हम जाएँ, यह कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक, तेजस्वी जगदीश ! (यः) जो आप (उग्रः इव) प्रचण्ड धनुर्धारी के समान (शर्यहा) वध करने योग्य काम, क्रोध आदि शत्रुओं के और व्याधि, स्त्यान आदि योग-विघ्नों के विनाशक, (तिग्मश्रृङ्गः न) तीक्ष्ण किरणोंवाले सूर्य के समान (वंसगः) चारु गतिवाले तथा सेवनीय होते हुए (पुरः) शत्रु की नगरियों वा किलेबन्दियों को (रुरोजिथ) तोड़-फोड़ डालते हो, ऐसी आपकी शरण में हम पहुँचते हैं ॥३॥ यहाँ उपमालङ्कार है ॥३॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वर की उपासना से बल पाकर मनुष्य सब आन्तरिक शत्रुओं तथा योग के विघ्नों को पराजित करके लक्ष्य के प्रति जागरूक होता हुआ अभ्युदय और निःश्रेयस प्राप्त कर लेता है ॥३॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

अत स परमेश्वरः कीदृशो यं वयं उपगच्छेमेत्याह।

पदार्थान्वयभाषाः -

हे (अग्ने) अग्रनायक तेजस्विन् जगदीश ! (यः) यस्त्वम् (उग्रः इव) प्रचण्डः धनुर्धर इव (शर्यहा) शर्याणां हन्तव्यानां कामक्रोधादीनां शत्रूणां योगविघ्नानां व्याधिस्त्यानादीनां च हन्ता, (तिग्मशृङ्गः न) तीक्ष्णकिरणः सूर्य इव (वंसगः) वननीयगतिः संसेव्यश्च सन् (पुरः) शत्रुनगरीः शत्रुदुर्गपङ्क्तीर्वा (रुरोजिथ) भनक्षि। [रुजो भङ्गे, तुदादिः, सामान्यकाले लिट्।] तस्य ते शर्म शरणं वयम् अग्न्म इति पूर्वमन्त्रादाकृष्यते ॥३॥२ अत्रोपमालङ्कारः ॥३॥

भावार्थभाषाः -

परमेश्वरोपासनया प्राप्तबलो जनः सर्वानान्तरान् शत्रून् योगविघ्नांश्च पराजित्य लक्ष्यं प्रति जागरूकः सन्नभ्युदयं निःश्रेयसं च लभते ॥३॥